Chhath Puja 2024: छठ पूजा के तीसरे दिन कोनसे पाठ का पठन करे ?

छठ पूजा के तीसरे दिन कोनसे पाठ का पठन करे ?

Chhath Puja par kya kare ?: छठ पूजा का पर्व उत्तर प्रदेश और बिहार मैं काफी वर्षों से  मनाया जा रहा है , मनो ये साधियों से चली आ रही एक साधना है . जिसे नियमित रूप से वहा के लोग पुरे भक्ति भाव के साथ मनाते आ रहे है . छठ पूजा के तीसरे दिन जिसे संध्या अर्घ्य भी कहा जाता है, भक्त भगवान सूर्य की पूजा करते हैं और उन्हें अर्घ्य अर्पण करते हैं। इस दिन भक्त सूर्य कवच या आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं। इनका पाठ करने से भगवान सूर्य की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है।

मैं आपको सूर्य कवच या आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ बता ता हु – बस आप इसे भक्ति भाव से और शुद्ध उच्चारों के साथ पढो

Chhath Puja
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सूर्य कवच

ॐ अस्य श्री सूर्य कवच स्तोत्रस्य कश्यप ऋषिः। गायत्री छन्दः। आदित्य देवता।
मम सर्व कार्य सिद्धये सूर्य कवच पाठे विनियोगः॥

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥

सप्ताश्वरथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम्।
श्वेत पद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्॥

लोकेशं जगतां नाथं महातेज: प्रदीपनम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्॥

त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मा विष्णु महेश्वरम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्॥

ब्रह्माणं च महाशूरं ब्रह्मा विष्णु महेश्वरम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्॥

आदित्य हृदय स्तोत्र

chhath puja 2024: छठ पूजा के तीसरे दिन कोनसे पाठ का पठन करे ?
आदित्य हृदय स्तोत्र

आदित्य हृदय स्तोत्र का पूरा पाठ दिया गया है, जिसे भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए ऋषि अगस्त्य के कहने पर पढ़ा था। इस पाठ का नियमित रूप से श्रद्धापूर्वक पाठ करने से व्यक्ति को साहस, शक्ति, और विजय प्राप्त होती है।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥ 1॥

दैवतैश्च समागम्य दृष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद्रामं अगस्त्यो भगवानृषिः॥ 2॥

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन्वत्स समरे विजयिष्यसि॥ 3॥

आदित्य हृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यं अक्षय्यं परमं शिवम्॥ 4॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनं आयुर्वर्धनमुत्तमम्॥ 5॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥ 6॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणान् लोकान् पाति गभस्तिभिः॥ 7॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥ 8॥

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजाप्राणः ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥ 9॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥ 10॥

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्ड अंशुमान्॥ 11॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्कः शिशिरनाशनः॥ 12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥ 13॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भवः॥ 14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोऽस्तु ते॥ 15॥

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥ 16॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥ 17॥

नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः॥ 18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥ 19॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥ 20॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥ 21॥

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥ 22॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥ 23॥

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥ 24॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥ 25॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥ 26॥

अस्मिन्क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्॥ 27॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥ 28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥ 29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥ 30॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥ 31॥


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